Violence During Lok Sabha Election: 'वायलेंस, वायलेंस, वायलेंस, आई डोंट लाइक इट, आई अवॉइड.... बट वायलेंस लाइक्स मी, आई कांट अवॉइड' साल 2022 में आई फिल्म केजीएफ-2 में रॉकी भाई का ये डायलॉग काफी चर्चित हुआ था. भारतीय लोकतंत्र में भी चुनाव के साथ वायलेंस यानी चोली दामन का साथ है. लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण के मतदान में पश्चिम बंगाल और मणिपुर में भड़की हिंसा ने फिर पूरे देश का ध्यान खींचा है.
लोकसभा चुनाव के पहले चरण में एक सीआरपीएफ कांस्टेबल शहीद
लोकसभा चुनाव के पहले चरण में देश के 17 राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 102 सीटों पर मतदान के दौरान छिट-पुट हिंसा की घटनाएं सामने आईं. बीजापुर में चुनाव ड्यूटी में लगे सीआरपीएफ कांस्टेबल देवेंद्र कुमार शहीद हो गए. वहीं, पश्चिम बंगाल में उपद्रवियों ने कूच विहार इलाके में बमबाजी की. मणिपुर में गोलीबारी की गई. हिंसा की इन घटनाओं ने अगले चरणों के शांतिपूर्ण संपन्न होने को लेकर चिंता बढ़ा दी है.
चुनावों के दौरान हिंसक घटनाओं पर ज्यादातर राज्यों में सख्ती
चुनावों के दौरान हिंसा के सवाल पर ज्यादातर राज्यों में सख्ती बरतने का बेहतर परिणाम सामने आया. देश के कई इलाकों में चुनावी हिंसा और उससे जुड़ी वारदातें कम हुई हैं. वहीं, कई राज्यों में ऐसी घटनाओं में इजाफा हुआ है. पिछले चार दशकों में चुनाव आयोग ने चुनाव दर चुनाव अपनी व्यवस्था में सुधार किया है। इस बार भी पश्चिम बंगाल और मणिपुर में पर्याप्त संख्या में केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात थे. इसके बावजूद कई हिंसक घटनाएं सामने आईं.
भारतीय लोकतंत्र पर काला धब्बा है चुनाव के दौरान हिंसा की घटनाएं
भारतीय लोकतंत्र पर काले धब्बे की तरह दिखती ये चुनावी हिंसाओं का क्या इतिहास है. आखिर वो कौन सी वजहें हैं, जिनके चलते चुनाव के साथ हिंसा का नाता टूट नहीं पाता और देश में अब तक सबसे ज्यादा हिंसक घटनाओं वाला लोकसभा चुनाव कब रहा. आइए, इन सब सवालों के बारे में विस्तार से जानने की कोशिश करते हैं.
लोकसभा चुनावों के 75 साल के इतिहास में सबसे ज्यादा अवैध रकम जब्त
चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनावों के 75 साल के इतिहास में सबसे अधिक अवैध रकम और नशीले पदार्थ जब्त किए हैं. इसके बावजूद चुनाव के दौरान हुई हिंसा ने फिर कई पुरानी बहसों को फिर से जन्म दे दिया है. कहा जाता है कि हमारा लोकतंत्र अमृत काल से गुजर रहा है, लेकिन हम कब ऐसी वारदातों से छुटकारा हासिल कर पाएंगे?
पहले खासकर, बिहार और उत्तर प्रदेश भी ऐसी भयावह घटनाओं को देखने और झेलने के लिए अभिशप्त थे. इन राज्यों में चुनाव आयोग की योजनाएं कारगर साबित हुई हैं. हालांकि, यह पश्चिम बंगाल में हर बार नाकाम हो जाती हैं. एनसीआरबी ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया था कि साल 2010 से 2019 के बीच राज्य में 161 राजनीतिक हत्याएं हुई और देश में बंगाल इस मामले में पहले स्थान पर था.
भारत में पब्लिक लाइफ में हिंसा को लेकर दुनिया भर में चिंता
स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सटी के मानव विज्ञानी प्रोफेसर थॉमस ब्लोम हांसेन ने तीन साल पहले चौंकाने वाले बयान में कहा था, 'हिंसा भारत के सार्वजिक जीवन के सेंट्रल रोल में आ चुकी है.' उन्होंने साल 2021 में एक किताब लिखी थी- 'द लॉ ऑफ फोर्स: द वायलेंट हार्ट ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स.' इस किताब में उन्होंने लिखा है 'नागरिकों की हिंसक होती प्रवृति एक गहरी समस्या और विकृति का संकेत देता है. ये लोकतंत्र के भविष्य के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है'. उन्होंने इस बात पर हैरानी जताई थी कि आख़िर क्यों भारत का आम नागरिक या तो सक्रिय हिंसा में शामिल है, या फिर परोक्ष रूप से इसका समर्थक है?'
शुरुआती आम चुनावों में बूथ लूट और चुनावी हिंसा का जोर
दूसरी ओर, भारत में सबसे हिंसक वारदातों वाला चुनाव 1957 के आम चुनाव को बताया जाता है. सिद्धांतवादी राजनीति के जिक्र के बावजूद बूथ लूटने की पहली घटना उसी साल हुई. उसके बाद आपातकाल के तुरत बाद होने वाला चुनाव यानी लोकसभा चुनाव 1977 में कांग्रेस और गैर-कांग्रेस समर्थकों के आक्रामक होने के चलते जमकर हिंसक वारदातें हुईं. हालांकि, 1970 के दशक से बाद के 25-30 के वर्षों में चुनावी हिंसा काफी हद तक कम हो चुकी थी.
लोकसभा चुनाव 2004 में भी पहले चरण के मतदान पर हिंसा का साया रहा था. कश्मीरी अलगाववादियों और माओवादी गुरिल्लाओं के हमलों में एक दर्जन से अधिक लोग मारे गए थे. वहीं, लोकसभा चुनाव 1999 के दौरान हिंसा में 100 लोग मारे गये थे.
साल 1984 और 1991 में भारत के दो प्रधानमंत्रियों की हत्या
साल 1984 और 1991 में भारत के दो प्रधानमंत्रियों की हत्या की गई. इसके बाद देश में चुनावी हिंसा और बड़ी राजनीतिक हत्याओं के पैमाने पर भी हिंसा में गिरावट साफ तौर पर देखी गई. 1989 से 2019 के बीच पोलिंग स्टेशनों पर हिंसा में 25 फ़ीसदी की गिरावट हुई है. वहीं, इसी दौरान चुनावी हिंसा में मारे गए लोगों की संख्या 70 फ़ीसदी तक कम हुई है. जबकि इन 30 सालों के बीच वोटरों, उम्मीदवारों और पोलिंग स्टेशनों में बढ़ोतरी के साथ चुनावी प्रतिस्पर्धा भी कई गुना बढ़ चुकी है.
चुनावी हिंसा पर नियंत्रण में सुरक्षा सुविधाओं की भूमिका बेहद अहम
राजनीतिक जानकरों के मुताबिक देश में 20वीं सदी के आखिरी दो दशकों की तुलना में 21वीं सदी के पहले दो दशकों में चुनावी हिंसा की घटनाएं कम दर्ज की गई है. इस चुनावी हिंसा पर नियंत्रण में सुरक्षा सुविधाओं की भूमिका बेहद अहम है. जैसे पैरामिलिट्री फोर्सेज का ज़्यादा इस्तेमाल, हेलिकॉप्टर और ड्रोन्स से सर्विलांस, मोबाइल फोन टावरों की स्थापना, पहले से अधिक सुरक्षित पुलिस चौकियां और प्रभावित इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा बढ़ाने के साथ नई सड़कों का निर्माण. इन सब उपायों की मदद से चुनावी हिंसा में कमी आई.
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धर्म की राजनीति और सांप्रदायिक दंगे में भी रिकॉर्ड कमी
साल 1947 में देश के बंटवारे के दौरान धर्म के आधार पर अब तक की सबसे बड़ी हिंसा हुई थी. इसमें 10 लाख लोग मारे गए और एक करोड़ से ज़्यादा लोग विस्थापित हुए. इसके आगे 1970 से लेकर 2002 के बीच कई भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इसके बाद देश में हुए दंगों की संख्या स्थिर रही. 1970 से लेकर 20वी सदी के आखिरी सालों तक दंगे अपने पूर्ववर्ती काल से करीब 5 गुना ज़्यादा हुए.
1990 के दशक में बाद के बरसों में इनमें गिरावट शुरू हुई और सुधार के साफ़ संकेत 2009 से 2017 के बीच मिलने लगे. सरकार की ओर से 2022 दिसंबर में संसद में बताया गया कि 2017 से 2021 के बीच पूरे देश में दंगों के 2900 मामले दर्ज हुए. सरकार के आंकड़े के मुताबिक भारत में दंगों की तादाद में गिरावट ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम स्तर पर है.
नाइजीरिया में दुनिया का अब तक का सबसे लंबा और खूनी चुनाव
अंत में, चुनाव प्रचार और मतदान के दौरान हिंसा को लेकर दुनिया के सबसे बड़ा खूनी उदाहरण नाइजीरिया का है. ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया का सबसे रक्तरंजित चुनाव अप्रैल, 2011 में हुआ था. तब, गुडलक जोनाथन फिर से वहां के राष्ट्रपति बने थे. हालांकि, इसे नाइजीरिया के इतिहास का सबसे निष्पक्ष चुनाव माना गया. लेकिन, अगले तीन दिन तक लगातार उस देश में इतनी हिंसा हुई कि पूरी दुनिया घबरा गई. इस हिंसा में 800 से ज्यादा लोगों की हत्या हुई और 65 हजार से ज्यादा लोगों को विस्थापित होना पड़ा.
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